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अकेला स्वप्न (कांटेस्ट)

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मैं तिमिर के मुकुल में
हरिदश्व की उपासना करने
जाऊँगा क्षितिज पर वहाँ
मुखरित जहाँ स्वप्न होंगे
मेरे, तुम्हारे, सभी के
जहाँ नन्हें शिशु स्वप्न सुप्त हैं ,
गहनता के ओट में ,
जाग्रत करूंगा मैं उन्हें
नभगेश की पांखे लगाकर ,
अपरिचित सभी के परिचित
सपनों के पत्तों को बटोरकर
बसन्त फिर लाऊंगा मैं,
मगर तुम ना जाना इस
आंगन से कभी ,
नयनों की नदियां बहतीं हैं
जब धीमे से आहिस्ते कभी,
उन्हें पार कर लौट आना
चुपके से जरुर ,
निहारता रहूँगा मैं
उन हवाओं को जो
देखती हैं तेरी राह
ले जाती मुझे कभी
दूर ,कभी पास अब भी
अकेले,फिर अकेले

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